मेज़ और अधलिखी किताब की कहानी

Posted: July 10, 2013 in So called Poetry, Thoughts

एक नज़र का चश्मा है मेरी मेज़ पर
और एक पानी की बोतल, शायद स्टील की
और कुछ पन्ने, उस एक अधलिखी किताब के
जो शायद कभी पूरी ना होगी.

नाम मिटने लगा है अब इस बोतल पर से
बुरा लगा था जब पहले पहल मिटते देखा था
ठीक वैसे ही जैसे बचपन में लगा करता था
जब वो मोम वाले रंग खत्म होते थे.

कुर्सी पर कमर लगाये, मेज़ पर पैर फैलाए बैठा हूँ
पर इस मेज़ को शिकायत नहीं, ना इन पन्नों को
बस मुझे है. शिकायत का शायद पता नहीं, पर हाँ
रोष है, अवसाद है, और सर दर्द भी.

कभी कहीं भाग जाने को दिल किया है आपका ?
पर भागे नहीं, क्यूंकि एक मेज़ थी, और उसपर
वो एक तस्वीर, उसे ही देखकर पैर ठिठके थे ना ?
मेरी किताब भी ठिठकी है, और मैं भी.

आये दिन ये नज़र का चश्मा भी मजाक करता है
काम नहीं चलता ना  इसके बिना, पता है इसे
आज मेज़ भी है, चश्मा भी, और शायद कुछ नहीं भी है
तभी शायद इन पन्नों पर लिखने का मन कर आया है.

पर ये पन्ने भी खोते से जा रहे हैं अब, गम नहीं
और क्यूँ हो, मेरी कहानी थोड़े ही है इनमे
और हो भी तो क्या मैं यहाँ तुमसे सच कहूँगा?
कहते हुए शायद रो ना दूंगा?

ये थी मेज़ और अधलिखी किताब की कहानी
मेरी कहानी ?
किसी दिन और सही…

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